पहाड़ शब्द सुनते या पढ़ते ही आँखों के आगे आ जाते है न- ऊँचें हरे-भरे पहाड़, सर्पाकार सड़कें, झरने, नदियाँ और हिमालय। लेकिन पहाड़ों में पहाड़ों को गले लगाकर उनके साथ कदमताल करते हुए जीना उतना आसान भी नहीं है, जितना हम सोचते है। बीस से अधिक असोज बीत गए हैं मुझे पहाड़ छोड़े और शहरों के आकर्षण में बँधे हुए। असोज इसलिए क्योंकि असोज का महीना पहाड़ों के लिए खासा मेहनत भरा होता है और वही याद रहता है, जो लोग गाँवों में रहे हैं, उन्हें असोज के महीने का महत्व पता ही होगा। सावन तो फिर पूरे वर्ष चलता रहता है। शरीर ही शरीर छूटा पहाड़ों से, मन तो अभी भी कोसी नदी के किनारे पानी में पत्थर मारते हुए या जंगल में किसी काफल के पेड़ से काफल तोड़ने में ही अटका हुआ है। आँखें अब भी वही हिमालय के नयनाभिराम दृश्य अंकित किये हैं और कान अब भी जंगल से गुजरते हुए साँय-सांय की आवाज़ सुनने को तरसते है। जीभ, खाने में जो स्वाद भट्ट के डुबके, मड़ुवे की रोटी, आलू के गुटके में था, वही स्वाद छोले-भठूरे, राजमा-चावल, पिज़्ज़ा-बर्गर में ढूँढ़ने का प्रयास करती है।