जो मन की व्यथा मैं बोल ना पाई वो लेखनी के द्वारा पन्नों पर उतार डाला। समाज के बनाए गए मापदंडों में खरा उतरने के लिए कभी जंजीरों को तोड़ ही न पाई। मैं (मृणालिनी मिश्रा)पिछले 25 वर्षो से अध्यापन के क्षेत्र मे अपना योगदान दे रही हूँ। लेखन का पुराना शौक है पर समयाभाव के कारण नहीं हो पाता था। कोविड को धन्यवाद देना चाहते हैं जिसने मेरा पुराना शौक पुनर्जीवित किया।मैंने दुनिया के अलग अलग देशों में भृमण किया है। अपने देश से पिछले 25 वर्षो से दूर रहने के कारण अपनी मात्र भाषा से एक अजीब सा लगाव है। मेरा विचार है कि आप चाहें जितनी भाषाओं में पारंगत हो जाए लेकिन जब तक आप को अपनी बोली नहीं बोलने को मिले वो एहसास ही नहीं हो पाता। एक लेखक अपनी मातृ भाषा मे ही अधिक सटीक एहसास पाठक को करा पाते हैं। ये मेरा अपना व्यक्तिगत विचार है।