Beejakshar

· Vani Prakashan
4,0
1 crítica
Livro eletrónico
74
Páginas
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Acerca deste livro eletrónico

जो बातें मुझको चुभ जाती हैं, मैं उनकी सूई बना लेती हूँ। बहुत बचपन से यह एहसास मेरे भीतर थहाटें मारता रहा कि मेरे भीतर के पानियों में एक विशाल नगर डूबा हुआ है-कुछ स्तूप, कुछ ध्वस्त मूर्तियाँ, कुछ दीवारें, पत्थर के बरतन...वगैरह! कुछ लोग हैं, खासकर कुछ स्त्रियाँ जो चुपचाप एक ही दिशा में देख रही हैं लेकिन उन आँखों में कोई प्रतीक्षा नहीं, कोई सपना नहीं। स्मृतिशून्य भी हैं वे आँखें पर मुर्दा नहीं हैं। करुणा की निष्कम्प लौ है उन आँखों में और एक अन्तरंग-सा उजास। आस-पास की लहरों पर बिछलती मछलियाँ, दूसरे जल-जीव और वनस्पतियाँ भी इनकी उपस्थिति से बिल्कुल अप्रभावित। किसी का किसी से कोई ख़ास संवाद नहीं, और संवाद की ज़रूरत भी नहीं, इतनी मगन और मीठी-सी चुप्पी छायी है कि शब्द भी प्राणों में रोड़े अटकाते जान पड़ते हैं। अक्सर आँख बन्द करने पर और कभी-कभी खुली आँखों से भी मैंने यह दृश्य देखा है जो क्या जाने कब से मेरे अवचेतन में दर्ज था। ये धुएँ की लकीरें ही तरह-तरह की काल्पनिक आकृतियाँ अक्सर सजा देती हैं। ये अधूरी आकृतियाँ पूरी करने की आकांक्षा से कलम उठाई थी, जैसे कोई छोटा बच्चा पहली कूची उठाता है, कोई दर्जी अपनी सूई से सब कतरनों की कथरी सिल लेता है। बचपन में अक्सर ऐसा होता। आधा समझा हुआ, आधा असमझा, आधा रंगीन, आधा बेरंग, आधा उजाला, आधा अँधेरा मुझे सामने के लोगों के आस-पास भी घिरा जान पड़ता और एक अनाम-सी बेचैनी घेरे रहती। कभी कोयल कूकती तो एकदम से रुलाई आ जाती। अमराई में कोई सूना हिंडोला लू के थपेड़ों पर झूलता हुआ दिखाई देता तो भी कलेजा मसकता। होली के बाद बचे हुए रंगों के ठोंगे मुझे विशेष परेशान करते। कोई त्योहार आता तो लगता कोई मुझे बीच से दो टुकड़ों में वैसे ही चीर रहा है जैसे आरी से लकड़ी चीर दी जाती है-आधा हिस्सा तो पिचकारियाँ भर रहा है, पुए का लोर घोलने में माँ की मदद कर रहा है, मुहल्ले में लड़के-लड़कियों के साथ होली खेल रहा है और आधा हिस्सा पीछे छूटा हुआ देख रहा है। धूल के गुबार, पुरबाई में धीरे-धीरे बहता यह एक विराट एकान्त मेरी धड़कनों में प्रवेश कर रहा है। क्या जाने किसकी प्रतीक्षा है, क्या जाने क्या होने वाला है, सब कुछ अधूरा है-'फिल इन द ब्लैंक्स' 'फिल इन द ब्लैंक्स' पड़ोस में लोकल कॉन्वेंट से ऐंग्लो-इंडियन मिसेज़ हॉलिग्सवर्थ जिस स्वर में निर्देश देती थीं, उससे अलग किसी स्वर में कोई कहता, “रिक्त स्थानों की पूर्ति करो, रिक्त स्थानों की पूर्ति!"

Classificações e críticas

4,0
1 crítica

Acerca do autor

अनामिका निबन्ध लिखती हैं, अखबारों और पत्रिकाओं में स्तम्भ लिखती हैं, कहानियाँ और उपन्यास रचती हैं, कविताओं और उपन्यासों का अनुवाद सम्पादन करती हैं, और अंग्रेजी साहित्य का अध्यापन करती हैं। एक पब्लिक इंटेलेक्चुअल के रूप में व्याख्यान देने से लेकर स्त्रीवादी पब्लिक स्फियर में सक्रिय रहने तक वे और भी बहुत कुछ करती हैं। पर, सबसे पहले और सबसे बाद में, वे एक कवि हैं। 1961 के उत्तरार्द्ध में मुजफ़्फ़रपुर, बिहार में जन्मी और अंग्रेज़ी साहित्य से पीएच.डी. अनामिका राजभाषा परिषद् पुरस्कार (1987), भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार (1995), साहित्यकार सम्मान (1997), गिरिजाकुमार माथुर सम्मान (1993), परम्परा सम्मान (2001) और साहित्य सेतु सम्मान (2004), केदार सम्मान (2008), शमशेर सम्मान (2014), मुक्तिबोध सम्मान (2015), वाणी फ़ाउंडेशन डिस्टिग्विश्ड ट्रांसलेटर अवार्ड (2017) से विभूषित हो चुकी हैं। प्रकाशित कृतियाँ : आलोचना : पोस्ट एलिएट पोएट्री : अ वॉएज फ्रॉम कफ्लिक्ट टु आइसोलेशन, डन क्रिटिसिज्म डाउन दि एजेज़, ट्रीटमेंट ऑव लव ऐंड डेथ इन पोस्ट वार अमेरिकन विमेन पोएट्स, ट्रांसलेटिंग रेशियल मेमरी। विमर्श : स्त्रीत्व का मानचित्र, मन माँजने की ज़रूरत, पानी जो पत्थर पीता है, स्त्री-विमर्श का लोकपक्ष, त्रियाचरित्रं : उत्तरकाण्ड, स्वाधीनता का स्त्री-पक्ष। कविता : गलत पते की चिट्ठी, बीजाक्षर, समय के शहर में, अनुष्टुप, कविता में औरत, खुरदरी हथेलियाँ, दूब-धान, थेरी गाथा : टोकरी में दिगन्त, पानी को सब याद था। कहानी : प्रतिनायक। संस्मरण : एक ठो शहर था, एक थे शेक्सपियर, एक थे चार्ल्स डिकेंस। उपन्यास : अवान्तर कथा, दस द्वारे का पींजरा, तिनका तिनके पास, आईका साज़। अनुवाद : नागमंडल (गिरीश कार्नाड), रिल्के की कविताएँ, एफ्रो इंग्लिश पोएम्स, अटलांत के आर-पार (समकालीन अंग्रेजी कविता), कहती हैं औरतें (विश्व साहित्य की स्त्रीवादी कविताएँ), भाषिक पुनर्वास।



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