जी हाँ बेर झरबेरी के! स्वाद चखा है कभी! नहीं न। तो आओ मैं खिलाता हूँ माँ का प्रसाद बेर झरबेरी के । ‘ये अहल्याएं’ युगनिर्मात्री तिरस्कृता कैकेई, सुधियों की सौग़ात’ ‘अँजुरी भर फूल श्रद्धा के,’ बोलते होंठ पत्थर के, सतफेरा-राजाराम में सीताराम और ख़ामोश अहालत जारी है’ के पश्चात् माँ वाणी का प्रसाद ‘बेर झरबेरी के’ आप जैसे साहित्यानुरागी विज्ञजनों के समर्थ करों में सौंपते हुए आशानिवत हूँ पूर्व रचित टंकित रचनाओं की भांति इसे भी स्वीकोरेंगे। एक बात मैं पुनः हृदय से स्वीकारता हूँ इसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है। माँ वीणा-पाणि ने बोला, मैंने लिखा। अब लिखने में कोई त्रुटि हो गई हो तो अल्पज्ञ समझ क्षमा कर दे और कहीं रूचै तो माँ को नमन करना। इसमें पाएंगे छंदों की मिठास ‘‘थामि के कलाई कुछ तिरछे नयन करि बोंली राधा नेह की खिली हो जैसे पाँखुरी..... रास हौं रचाऊँ छेड़ूँ मुरली की तान आज, राधा बनि नाचै तुम बाँधि पाँव पाँसुरी।’’....‘‘लाल लँहगा पै चूनरी हू लाल लाल, शोभित महाबर से पाँव लाल लाल हैं.... इतै लाल बितै लाल, जिते देखो उतै लाल, हिय में घँसों ये नंदलाल लाल लाल हैं।’’ चतुष्यही की सुवास ‘‘पारिजात मुख नीलोफर हृग, अरुणाम्बुज कपोल रति काया.... श्वेत संगमरमर की प्रतिमा ऐसी गढ़ दी संतरास ने, देह सुवासित चंदन जैसी, झाँक रही हो गंगाजल में।’’ द्विवदी (दोहों) की पावनता ‘‘तन मथुरा मन गोकुल, उर वृंदावन धाम, ‘शूल’ भावना निधिवन, बिहरैं राधेश्याम।’’ ‘‘चंदन तन महुआ बदन, सलज सलोने नैन, घूँघट अंदन से तिरैं, मिसिरी घोले बैन’’ ‘‘महक उठीं अमराईयाँ, पुहुपन पै मकरंद, छंद सबैया तितलियाँ, मधुकर गीत गोविंद।’’ हाइकु ‘‘स्वाभिमान रहित अभिमान सहित नर पशु और क्षणिका, काणिका में व्यंग की गुदगुदी देखिए ‘‘आज के रिश्ते रोज तौले जार हैं तराजू पर।’’ ‘‘लाज बेचारी भूलने लगी सारी, आज की नारी।’’ ‘‘गुल व्यष्टि, गुलशन समष्टि।’’ और महसूस करिए यूगलिका की सिहरन ‘‘सुर्ख लव मतला औ मक्ता शोखियाँ, है मुकम्मिल ग़ज़ल शरमाई नज़र।’’ ‘‘गाँव वह तीर्थ सा हो गया, देश पै जो फ़ना हो गया।’’ ‘‘सर झुका जिसका भी उस जगह, उसका सिजदा अता हो गया।’’ ‘‘कवि कलम के सपन की फितरत ग़ज़ल है गुदगुदाते प्यार की हसरत हसरत गज़ल है।’’ मदहोश गुंच ओ गुल ओ गुलज़ार ही नहीं, दिल ‘शूल’ का भी गुदगुदाती आई चाँदनी।’