शताब्दियों तक हमारे देश पर विदेशी आक्रमणकारियों का अवांछित आधिपत्य रहा। उन्होंने सर्वप्रथम हमारी शिक्षा, संस्कृति व परम्पराओं को नष्ट करने का प्रयास किया। प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था के ध्वस्त हो जाने से भावी पीढ़ियों को शिक्षित होने के अवसर सीमित होने लगे। इसके कारण हमें अपने राष्ट्र, समाज, संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान एवं कला, साहित्य, इतिहास, धर्म, दर्शन इत्यादि के बारे में जानकारी केवल अपने कुल व ग्राम-परिवेश की कथाओं-प्रथाओं से ही सीमित रूप में मिल पाती थी। ज्ञान की ज्योति जलाने वाले कुछ सीमित दीपस्तम्भ ही शेष थे। अज्ञान से भ्रान्तियों व शंकाओं का जन्म होता है और इसके साथ अन्धविश्वास, कुरीतियाँ व कदाचार भी पनपने लगते हैं। इस आत्मपरिचयहीनता व आत्मदीनता के अन्धकार को मिटाने हेतु अनेक आत्मबोध जगाने वाले प्रयास किये गये ताकि हमारी वैभवशाली परम्परा भारत में पुनः प्रस्थापित हो। उसके फलस्वरूप हमारा प्राचीन साहित्य तथा उस पर आधारित बहुविध साहित्य प्रचुर मात्रा में अब भी भारत में विद्यमान है जिसके अधिकाधिक प्रसार के प्रयत्न भी राष्ट्रप्रेमियों द्वारा किये जा रहे हैं। उसी के माध्यम से हमारी संस्कृति व परम्परा का हमारी नयी पीढ़ी से साक्षात्कार हो सका है। ऐसा ही साक्षात्कार कराने का प्रयत्न लेखक व शिक्षाविद् डॉñ हरिश्चन्द्र बथ्र्वाल ने इस पुस्तक में प्रश्नोत्तरी के माध्यम से किया है।