JAGLYA

· MEHTA PUBLISHING HOUSE
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THERE IS NO SIMILARITY IN THE URBAN AND RURAL LIFE. THIS MAKES LIFE MORE MISERABLE. THE STORY OF HARI AND SHANKAR TOOK PLACE IN A CITY. A NEW CITY LIKE THE MIDC IS PLANNED. TALL BUILDINGS ARE BEING BUILT. NEW RESIDENTS ARE COMING TO RESIDE IN EVERY

खेड्यात हे आसं आन शहरात दुसरंच. ताळमेळ कायी बसत नव्हता. डोसक्याचा गोयंदा झालेला. हरि शंकर परसाइची गोष्ट आठवली. ती घडते शहरात. नव्यानंच जसं एमआयडीसी सारखं नवं शहर वसत हाये. उंच उंच इमारती उभ्या रहातात. येगयेगळया इमारतीत नवीन आलेली खटली. सारी शिकली सवरलेली. कुनी इंजिनियर तर कुनी डाक्तर. आता परेम हा तसा साथीच्या रोगासारख पसवरत जातो. तिथं जातीपातीची, धरमाची, परांताची बंधनं आड येत न्हायीत. अशाच नाजूक येळी एका मराठ्याच्या पोराचं आन बामनाच्या पोरीचं लफडं सुरू झालं. आई-बापांना पत्ता न्हायी. शेवटी पोरानं आपल्या बापाला सांगितलं- ‘बस,काही पन करा; कुलकरनीच्या बाला भेटा. तिच्यावर माझं मन जडलंय. तिच्यावाचून जगू शकत न्हायी.’ लेकाचा जीव तीळतीळ तुटतांना पाहून मुलाचा बाप कुलकरनीच्या घरी गेला. बापाला आधी वाटलं, हे सारं ऐकून हुसकूनच देतील आपल्याला कुलकरनी; पन झालं भलतंच! लयी आगतस्वागत झालं. सारं ऐकल्यावर कुलकरनी म्हंगाला,‘फार बरं झालं तुमी आलात. न्हायी तर आमच्या जातीत लयी हुंडा. तुमाला मुलगी दिली तर हुंड्यातून सुटका व्हयील. पन एक मातूर खरं, की लगीन लावता येनार न्हायी. ते धर्मशास्त्रात बसत न्हायी. तुमी तुमच्या लेकाला सांगा, माझ्या मुलीला पळवून न्यायला. पळवून नेणं धरमात

बसतं.’ 

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