MRUTYUNJAY

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৪.৭
২৩৭টি রিভিউ
ই-বুক
721
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এই ই-বুকের বিষয়ে

असा हा कर्ण,



भीष्माचं पतन होईपर्यंत समरांगणात पायच टाकणार
नव्हता!



इंद्रानं पूर्वीच त्याची कवच-कुंडलं आपल्या पुत्रासाठी-



अर्जुनासाठी म्हणून दानाच्या मिषानं
त्याच्यापासून हस्तगत केलीच होती.



परशुरामांनी,



तुला ऐन युद्धाप्रसंगी ब्रह्मास्त्र स्फुरणार नाही.



असा मर्मभेदी शाप त्याला दिला होता.



महेंद्र पर्वतावरच्या ब्राह्मणाचे



तुझ्या रथाचं चक्र,



भूमीही युद्धात अशीच रूतवून ठेवील!



हे उद्गार कोणीही विसरू शकत नव्हतं.



जगात अनेकांनी दान केलं असेल पण -



पण मरणाच्या दारातील एवढं चित्तथरारक,



उत्तुंग एकनिष्ठ, अजोड दान



तो एकटाच करू जाणत होता -



पहिला पांडव!



ज्येष्ठ कौंतेय!



अजोड दानवीर,



सूर्यपुत्र!



श्रीकृष्ण : पांडवपक्षाचा पाठपुरावा करण्यासाठी सारथी
म्हणून मी कुरुक्षेत्रावर उतरलो होतो
, कारण कारण अर्जुनासह पाचही पांडवांना कृतान्त काळासारखा वाटणारा, असीम विक्रमी, सूर्यपुत्र कर्ण
समरांगणात भीष्माचं पतन होईपर्यंत उतरणारच नव्हता! त्याच्यासारखा अखंड साधनेनं
शुचिर्भूत
, योजनाकुशल, जाळत्या पराक्रमाचा, दिग्विजयी सेनानायक दोन्ही पक्षांत दुसरा कोणीच नव्हता!
म्हणूनच त्याला त्याच्या दिव्य कुलाची स्पष्ट जाणीव देऊन पांडवांकडं परतविण्याचा आटोकाट
प्रयत्न मी केला होता
; पण महासागरासारख्या त्याच्या निर्धाराला परतविण्यात सुदर्शन
धारण करणारे माझे हातही अयशस्वी ठरले होते! त्याचा थोडा काही तेजोभंग होईल असा मी
विचार केला
; पण जे भंग पावतं ते तेजच नसतं’, हे त्यानं सिद्ध केलं होतं!



असा हा कर्ण, भीष्माचं पतन
होईपर्यंत समरांगणात पायच टाकणार नव्हता! इंद्रानं पूर्वीच त्याची कवच-कुंडलं
आपल्या पुत्रासाठी
अर्जुनासाठी म्हणून दानाच्या मिषानं त्याच्यापासून हस्तगत
केलीच होती. परशुरामांनी
, ‘तुला ऐन युद्धप्रसंगी ब्रह्मास्त्रं स्फुरणार नाही.असा मर्मभेदी शाप
त्याला दिला होता. महेंद्र पर्वतावरच्या ब्राह्मणाचे
तुझ्या रथाचं
चक्र भूमीही युद्धात अशीच रुतवून ठेवील!
हे उद्गार कोणीही विसरू शकत नव्हतं. कुंतीदेवीला
तर त्यानं चार पुत्रांचं अभय पुत्रकर्तव्यापोटी दिलं होतं! कर्ण! सूर्यपुत्र असून
, पहिला पांडव असून, ज्येष्ठ कौंतेय
असून माझ्या इतकीच
म्हणजे एका सारथ्याएवढीच त्याची आता पात्रता नव्हती काय??



पण खरच तसं होतं का?



जगात अनेकांनी दान केलं
असेल पण
पण मरणाच्या दारातील एवढं चित्तथरारक, उत्तुंग एकनिष्ठ, अजोड दान तो एकटाच करू जाणत होता पहिला पांडव! ज्येष्ठ
कौंतेय!! सूर्यपुत्र!! अजोड दानवीर.

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