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विकास का विश्वास—मृदुला सिन्हासमाज की आवश्यकताओं के अनुरूप जो कल्याणकारी या विकासात्मक योजनाएँ बनती हैं; वे जरूरतमंदों तक पहुँच नहीं पातीं। माध्यम बने सरकारी तंत्र या स्वैच्छिक क्षेत्र अपनी विश्वसनीयता बनाने में अक्षम रहे हैं; इसलिए अरबों रुपया पानी की तरह बहाकर भी सरकार और जनता के बीच विश्वसनीयता का संकट गहरा रहा है। कल्याणकारी योजनाओं की राशि या तो सरकारी तिजोरी में धरी रह जाती है या गलत हाथों में पड़ती है; मानो नालों में बह जाती है।---किसी भी गाँव के विकास में गाँव; सरकार (पंचायत; राज्य और केंद्र); स्वैच्छिक क्षेत्र; धार्मिक संगठन और कॉरपोरेट जगत् की सामूहिक भागीदारी होनी आवश्यक है। पिछली दस पंचवर्षीय योजनाओं में विकास का सारा दारोमदार सरकारी संगठनों पर ही छोड़ दिया गया। पंथिक संगठन और उद्योग जगत् तो दूर; स्वैच्छिक संगठनों और गाँववालों की भी भागीदारी नहीं ली गई। विश्वसनीय विकास हो तो कैसे?---जिस समाज में संवेदना विलुप्त हो जाती है; ममता की धारा सूख जाती है; वहाँ लाख प्रयत्न करने के बावजूद समता नहीं लाई जा सकती। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का आदर्श भी पूरा नहीं हो सकता। अपार धन कमाने की ओर भाग रहे समाज को ममता की धारा में ही डुबोने की आवश्यकता है; ताकि एक-एक व्यक्ति के द्वारा कमाया धन-अंश दूसरों के सुख के लिए भी खर्च हो। सरकारी योजनाकारों और लागू करनेवाली एजेंसियों का संवेदनशील होना निहायत जरूरी है।—इसी पुस्तक से
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