आभार और कुछ बातें दिल से प्रिय पाठकों और मेरे दोस्तों, ‘Rx ज़िन्दगी’ को चुनने के लिए आपका शुक्रिया। इस किताब को लिखने के पीछे मेरा कुछ मकसद था- मैं जिन्दगी के उलझनों मे उलझे उन सारे लोगो से बातें करना चाहता था। युवा, जिनके पास हजारों सवालें हैं मगर जबाब उन्हे मिल नहीं पाता, मैं इस किताब के माध्यम से उनसे बातें करना चाहता था- उनके सवालों का जबाब देना चाहता था और उनके अंदर बैठे डर और भ्रम को निकाल-बाहर करना चाहता था। कितना कामयाब रहा, यह आपकी प्रतिकृया से ही पता चल पाएगा। मै प्रायः आत्मसुधार एवं मोटिवेशन पर लिखता हूँ और इसी के लिए थोड़ा-बहुत लोग जानते भी हैं। मोटीवेशनल बाते करना भी पसंद हैं और मोटीवेशनल सेमिनार मे एक दिन बोलते-युवाओं को ट्रेनिंग देते अचानक एक ख्याल आया था कि क्या मैं ट्रेनिंग वाली प्रभाव लिख कर व्यक्त कर सकता हूँ? क्या यह असरदार होगा? क्या रियल की तरह वर्चुअल प्रभाव भी होगा? बस मेरें दिमाग मे उस दिन से ब्लूप्रिंट बनने शुरू हो चुके थे। आत्मविश्वास के लिए इसे पढ़ा कर लोगो से समर्थन भी मांगा और मै कामयाब रहा। ट्रेनिंग देते कई बार यह महसूस किया था कि नई बातें-नए विचार मुश्किल से हीं स्वीकार होते हैं, बने-बनाये आरामदायक स्थिति मे दखलअंदाजी मन को बर्दाश्त नहीं होता और वो तरकीबे लगा-लगा कर भागना चाहता हैं। लगातार इनपर बोला भी नहीं जा सकता, सुननें वालों को नींद आने लगती हैं। लेकिन बोलना तो हैं, कैसे भी कहना हैं क्योकि यह वहीं चिजें होती हैं जो सफल बनाता हैं, जीना सिखाता हैं और सर ऊंचा कर चलना भी सिखाता हैं- मेरा हर छात्र मन के अपने आरामदायक स्थिति से बाहर निकलने के बाद यही बोलता- “मुझे पहले ही इसे सीखनी चाहिए था।” मुझे भी प्रयोग करना था- कहानी और आत्मसुधार साथ-साथ चलना चाहिए, बिना एक दूसरे की सीमाओं को लांघे। मैंने प्रयोग किया हैं कि जैसे ही आत्मसुधार बोर करने लगे तुरंत कोई खट्टी-मिट्ठी-नमकीन वाली मिक्सचर चख लिया जाए। मैं यह घोषणा कर सकता हूँ कि इस कहानी के पात्र काल्पनिक हैं -परंतु क्या यह पूर्ण सत्य होगा? मेरे ख्याल से कोई भी कहानी पूर्ण काल्पनिक नहीं होती हैं। लेखक जब कोई पात्र रचता हैं तो उसके दिमाग मे कोई न कोई छवि बनती हैं या पहले से ही कोई पात्र अवचेतन में रहता आया होता हैं। यह कई चरित्रों का मिश्रण भी हो सकती हैं। दर्शन और मनोवैज्ञानिक तानें-बानें पर बुना यह उपन्यास एक यात्रा हैं। यात्रा उम्र का, भावों का, संघर्षो का, विचारों का और अपनी औकात के खोल से बाहर निकलने का। जिस औकात के साथ हम पैदा होते हैं, उस औकात के अंदर रहने मे कोई परेशानी नहीं होती, पर यदि उस औकात से आगे बढ़ना चाहे तो हर कदम पर संघर्ष हमारी कठिन परीक्षा लेता है। हम दुःख पाते हैं, रोतें हैं, चिल्लातें हैं, डरतें हैं, गिर पड़ते हैं मगर अपनी नई औकात (पहचान) खातिर फिर से जूझते हैं। और एक दिन हमारी नई औकात भीड़ से अलग कर और आगे बढ्ने की प्रेरणा देता है। फिर से संघर्ष! दरअसल क्षमताओं का विकास बिना संघर्ष के संभव ही नहीं। संघर्ष भी क्षमताओं के विकास के साथ उच्चतर होता जाता हैं। एक समय ऐसा भी आता हैं जब संघर्ष हमे विचलित नहीं करता। इस साहसिक अभियान का कोई अंत नहीं, पर अंत का कारण हमारा किसी मुकाम पर रुक जाना होता हैं। मनोविज्ञान और विचार-भावनाओं के रहश्यों को उजागर करता यह उपन्यास व्यावहारिक सुझाओं पर टिका हैं। यह काल्पनिक उपन्यास दरअसल क्या सही, क्या गलत से परे की यात्रा हैं। यात्रा भी सही मायनों मे विचारों का हीं होता हैं, शरीर तो निर्देशों का पालन मात्र करता हैं। यात्रा जब विचारों का हैं तो सामूहिक विचार मिलकर वातावरण मे असर भी डालते होंगे? तभी तो वातावरण किसी को गिराता हैं और किसी को उच्चा उठाता है। जैसे अभावों से निर्मित मन कभी सहृदय नहीं हो सकता, वैसा ही जिसे प्यार मिल रहा होगा वे प्यार बाँट भी रहे होंगे। मन की गहराइयाँ भी कम चुनौती नहीं देती, इस उपन्यास के अंदर मन को आसानी से समझने की कोशिस भी कि गई है। सबसे सुखद यह कि मन को दुबारा से ‘री-प्रोग्राम’ किया जा सकता हैं और उसके तरीके दर्शाये गए है। हम जिस मन के साथ पैदा होते हैं वो हमारा चयन नहीं होता। हमारें मन का निर्माण बाहर से होता हैं। जब हम पैदा होते हैं तो हमारें पास मन नहीं होता, मन की क्षमता भर होता है- एक संभावना। यह तो समाज होता हैं जो हमारी क्षमताओं को वास्तविक बनाता है। जीवन मे सर्वाधिक जरूरी गतिविधि हम अपने मन मे हीं बनाते रहते हैं, हर वक़्त अपने मन के घर में यादें, अनुभव, धारणायेँ, और कल्पनाओं के नक्शे पर मानसिक घर का निर्माण करते होते हैं। मन की बीमारियाँ भी भावनाओं और विचारों के बेलगाम होने के बाद वाली स्थिति होती हैं, जिसे सेल्फ काउन्सेलिंग, माइंडफूलनेस्स मेडिटेसन और सेल्फ थेरेपी के माध्यम से उपाय बताई गई हैं। शरीर-मन-आत्मा को आधुनिक भाषा मे समझाने खातिर ओशो मेडिटेसन की यात्रा भी कि गई है। कई ऐसी रोचक जानकारीयां भी हैं जो पाठको को गिफ्ट सरीखा लगेगा। कहानी की शुरुआत बिहार में रहने वाले काल्पनिक पात्र अभिनव से शुरू होता हैं। जो एक साथ कई नई स्किले सीखने के बाद भी आर्थिक परेशानियों का सामना कर रहा हैं। वो चाहे तो ठहर कर पैसा कमा सकता हैं मगर जिंदगी को देखने का उसका नज़रियां ही कुछ अलग हैं, जिसमे ठहरना संभव नहीं। उच्च मानवीय मापदंडो पर चलते हुये वो संघर्ष तो कर रहा हैं, मगर यह भाव की वो भीड़ से अलग हैं, एक मुस्कान दे जाता हैं। 90 के दशक वाले ‘शापित बिहार’ मे किशोर हुआ अभिनव, बिहार को अहंकार सूचकांक मे सबसे ऊपर स्थान देता हैं, अहंकार सूचकांक मे चमकता हुआ बिहार कभी भी उसे अपनी तरफ खींच नहीं पाता हैं। अहंकार से रचे-बसे कठोरपना ने हमेशा उसे डराया हैं... और कोई डरा कर, चाहें किसी शहर की समूहिक चेतना हो चाहें वह कोई व्यक्ति हो, कभी किसी को अपना नहीं बना सकता। हर वक़्त सीनियर-जूनियर करने वाला यह बिहार- बिना तप किए हीं तपस्वी बन जाना चाहता हैं, जिसे देख कर अभिनव को घृणा होती है। वो उस बिहार को प्यार करता हैं जिसने विश्व को कई अनमोल उपहारें दी है, जिसने बुद्ध को ज्ञान दिया... और वहीं बिहार आज शापित खड़ा हैं। उसे लगता हैं कि किसी ऋषि ने जलनवस बिहार को श्राप दे दिया होगा! तभी तो जीवन चक्र में ऊंचाइयों को देखने वाला बिहार आज ढलान की तरफ ढुल रहा हैं। अभिनव को किशोर होने के बाद एक ऐसी दुनिया मिलती हैं, जिसके बारे मे उसे कुछ पता नहीं होता। इसने जो कुछ भी किया, वो बिना सोंचे-समझे किया, आगे बढ़ा। करने के परिणाम स्वरूप उसके नतीजो से ना वो परिचित था और ना उसके लिए तैयार। वह लड़ाकू सिपाही नहीं था लेकिन उसे अनजाने ही युद्ध क्षेत्र मे ढकेल दिया गया था। युद्ध क्षेत्र की रणनीतियों का कोई शिक्षा उसे नहीं मिली थी। यही कारण था कि जिन हथियारों से उसने युद्ध लड़ा था, वे हथियार भी युद्ध लायक नहीं थे और ना जिन शत्रुओं के विरूद्ध लड़ा, इससे पहले उन्हे शत्रु के रूप मे पहचानता भी नहीं था। सच हैं कि अब तक उसने जो किया था बिना सोंचे समझे किया था। यह तय हैं कि कोई इंसान अगर बिना सोंचे समझे कुछ करेगा तो उसके परिणाम भी अप्रत्याशित ही होगा। उसका भी कोई फ्युचर प्लान नहीं था लेकिन कुछ ना कुछ तो कर ही रहा था, जिसके परिणाम अनुकूल-प्रतिकूल होने के साथ आगे का रास्ता भी बनाता जा रहा था। वह भोला-भला अंतर्मुखी लड़का जो गाँव के खेलो से पार भी कुछ होता हैं देख नहीं पाया था, वो अब बड़ा हो रहा है। एक दायरे को ही पूरी दुनिया मान चुके उस लड़के को जब जिन्दगी के सवाल रुलाते हैं, तब वह लड़का बचपन को याद कर आराम पाता हैं। अब जिंदगी के सवाल भी बड़े हो चले हैं। वह डरता हैं, उलझता हैं, शिकायतें करता हैं, रोता हैं और ज़िन्दगी के अबूझ सवालों को सामने देख चौकता हैं और रोज चौकता ही जाता हैं। वह भगवान को कोसता हैं, उसे लगता हैं कि उसके साथ ही कुछ नया हो रहा हैं, सारे दुःख उसे ही मिल रहा है। किशोर से अब वह लड़का बड़ा होता हैं, मगर उसका संघर्ष भी बड़ा होता जा रहा हैं। अब वो खुद पर, अपने दुःखो के प्रति पुराने रवैये को लेकर की गई मूर्खतापूर्ण प्रतिकृया पर हँसता हैं और अपनी डायरी पर लिखता हैं- “असली परेशानी और उलझन तो यह आज वाली हैं।” कॉलेज मे अभिनव को इस उपन्यास का महत्वपूर्ण पात्र- रुद्र प्रताप सिंह उर्फ ‘फेब्बी’ से मुलाक़ात होती हैं, जिसके साथ रह कर उसका जीवन को देखने का नजरियां ही बदल जाता हैं। फेब्बी ही उसे जीतना सिखाता हैं, अपने शर्तो पर जीना सिखाता हैं और परिवर्तन को स्वीकार कर आगे बढ़ते हुये फेब्बी उसे प्रेरित भी करता हैं। पायलट बननें के लिए आया शानदार व्यक्तित्व वाला फेब्बी के संघत में ही वो लड़का इतना मजबूत बन जाता हैं कि अब मौत को भी सामने देख मुस्कुरा सकता हैं। वो लड़का अब महसूस करता हैं कि... यदि निरंतर आगे बढ़ते रहे तो- ‘हर आने वाला कल गुजरें कल से बड़ा होगा, दुःख बड़ा होगा, सपनें बड़े होंगे, सुख बड़ा होगा, मुस्कुराहटें बड़ी होगी, समय बड़ा होगा, अहसास बड़ा होगा और आंखे साफ होगी। शब्द कम होते जाएंगे। हॉस्टल की जिंदगी को खुल कर जीते इस उपन्यास के पात्र सही मायनों मे पुराने जमाने से नए जमाने मे दाखिल प्रतिनिधि लगते हैं। हॉस्टल की जिंदगी मे एक से बढ़कर एक शैतानियाँ करते जीवन के मर्म को भी ढूंढते जा रहे हैं। फेब्बी का ही कहना हैं कि- “शादी हो ना हो इंटरव्यू तो होना ही है” और जब इंटरव्यू मे बार-बार फ़ेल होने की नौबत आती हैं तो फेब्बी ही सुझाव देता हैं कि तुम पहले खुद को तैयार करो। 7 दिनों की ट्रेनिंग क्लास वास्तविक ट्रेनिंग सरीखे अहसास देता हैं जो व्यक्तित्व को बदल देने मे सक्षम हैं। एक शहर हैं जो अपने अतीत के दर्द से सबको रुलाता हैं, वहीं इस शहर के लोग गुदगुदी पैदा करते हैं। शहर का नाम भोपाल है जो हमे ‘ग्लोबल’ बना रहा हैं, तभी तो दुनिया पर आई आफत ‘y2k’ सरीखे वाइरस के कारण हम भी परेशान थे। हम 90 के दशक वाले लड़के स्वाभाविक तौर पर भावुक थे। सहानुभूति की इच्छा रखने वाले परंपरावादी थे! जैसे ‘Y2k!’ उस दशक में दुनिया की बदलाव आदमी के बदलाव से ज्यादा तेज़ थी। आदमी बदलने की सोंचता तब तक बदलाव किसी बड़े बदलाव मे गुम हो उस बड़े बदलाव के साथ तेज़ी से आगे निकल जाता। ये बदलाव भी कुछ देर के लिए ठहरा था। विकसित देश घुटनो पर खड़े लाचार दिख रहे थे। यह पहली बार था जब विकसित देशों के पास सिर झुकाने के सिवा और कोई विकल्प नहीं था। ‘y2k’ रास्ता रोके खड़ा था। सही मायनों मे यह ‘y2k’ समानता का पक्षधर था, तभी तो विकाशील देशो के लिए मौके लाया था। ‘y2k’ जिद्दी था, हम भी थे। ‘y2k’ डरता नहीं था, हम भी नहीं डरते थे। थोड़ा शर्मिला, आत्मविश्वास के लिए जूझता यह ‘y2k’ हमारे जैसा ही था। ‘y2k’ परिवर्तन बिलकुल नहीं चाहता था, तभी तो 1999 को 2000 मे जाने के रास्तों में डट कर खड़ा हो गया था। लेकिन उसे विश्वास मे लेकर यह समझाने पर की बदलना अच्छा होता हैं, वह तैयार हो चला था। यह सिर्फ मरना और जीना ही जनता था, कूटनीति तो उसे सिखनी पड़ी थी। उपन्यास के पात्रो को भी कूटनीति सिखनी ही पड़ी, जब दोस्ती मे चोट खायी। दोस्त बनाने, दोस्त बनने के साथ अवास्तविक उम्मीदे भी जन्म लेने लगती हैं, अवास्तविक आकलन भ्रम के रास्ते चलते हुये हमें ठगा महसूस कराता हैं, तब जाकर यह समझ पैदा होती हैं कि हर कोई दोस्त नहीं हो सकता। लोगो के एजेंडे दोस्ती को सामने रख अपना स्वार्थ ही साधता हैं। श्री कृष्ण को अपना दोस्त मानने वाला फेब्बी अक्सर कहा करता था- डर उसे लगता हैं जिसे किसी चीज़ से लगाव हो। फेब्बी भी डरा था... जब उसे प्रेम हुआ था, फुट-फुट कर रोया था जब ब्रेकअप हुआ था। ब्रेकअप के बाद कई भावनात्मक राज़ सामने आते हैं, कुछ सच्चाइयाँ जिसे पहले नहीं देखा जा सकता था, अब मौत की तरह सामने आता जा रहा हैं। भावनाओं के बनने-बिगड़ने का यह खेल थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। आखिरकार एक दिन, जब दिन और रात, अंधेरा और उजाला मिल कर किसी साजिश मे लिन थे तब फेब्बी के सामने मौत और जिन्दगी मे से किसी एक को चुननें का विकल्प आता हैं। हर वो अहंकार टूटता हैं, जिसे हम अपनी पहचान मे शामिल कर गर्व कर रहे होते हैं। इसका अहसास फेब्बी को हो चुका हैं। लड़कियों को जानने का दावा करने वाले फेब्बी को बड़ा अभिमान था अपने स्त्री ज्ञान पर। मगर फेब्बी को यह स्वीकार करना पड़ा कि- असली स्त्री को तो प्यार और ब्रेकअप के बाद ही समझ पाया था! “जब प्यार में था तो वो परी लगती थी, ब्रेकअप के बाद वो गंदी चुड़ैल लगने लगी थी, पर अब जब सोंचता हूँ तो हर स्त्री-लड़की देवी लगती हैं। अब मैं उनकी इतनी इज्जत करता हूँ कि बिना उनकी मर्ज़ी के मै उनके सोच में भी दाखिल नहीं होता।” स्त्री के विषय मे अन्य कई रोचक बातें भी सामने आई है, जो पाठको को आश्चर्यचकित करेगा। इस उपन्यास का तीसरा पात्र- अमित माहेश्वरी जिसे “आइये महाराज” वाली उपाधि कॉलेज के प्रोफेसर लोगो से मिल चुकी हैं, बेतहाशा हंसाता हैं। उसका लहजा और बेफिक्री सबसे प्यार दिलाता है। टमाटर जैसी प्रकृति पाये माहेश्वरी के पास हर एक के लिए अलग-अलग व्यवहार की कला हैं। इस उपन्यास के दोनों मुख्य पात्र अपनी समानान्तर जीवन यात्रा मे अलग-अलग स्थितियों मे बंधे रह कर भी जिजीविषा के मर्म को टटोलते रहते हैं। परिवर्तन तो निश्चित है! किसी को यकीन नहीं की एक दूसरे से बिछड़ जाएंगे, लेकिन ऐसे बिछड्ते हैं कि 10 साल बाद ही मिलना संभव हो पाता है, और तब जीवन के कुछ ऐसे राज़ सामने आते हैं, जिसके मर्म को- जी कर, छु कर ही समझा जा सकता हैं। अभिनव और फेब्बी दुबारा मिलते हैं, असामान्य से लगने वाला उनका जीवन अनुभव, मन की गहराइयों को प्रकाशित करता हुआ ऐसे सोंच को बाहर खींच लाता हैं जो सोंचने के साथ कुछ करने को भी विवश करता हैं। जिन्दगी को शेयर बाज़ार से तुलना करते कुछ ऐसे उंच मापदंड वाले व्यावहारिक ज्ञान का पता चलता हैं जो शेयर बाज़ार ही समझा सकता हैं। अभिनव डे-ट्रेडर है, जिसे अनुभवों से समझ मे आता है कि शेयर बाज़ार मे भी जिन्दगी कि तरह भावनाएं, या तो लाभ दिलाती हैं या फिर नुकसान। शेयर बाज़ार के जैसा जिन्दगी का भी ‘सपोर्ट लाइन’ और ‘रेसिस्टेंस लाइन’ होता हैं। जिन्दगी भी ‘मुविंग एवरेज’ से मापी जा सकती है। शेयर बाज़ार की तरह जिन्दगी भी ‘वोलटाइल’ होती है-कब, कहाँ, क्यों, कैसे, कोई नहीं जान सकता। वोलटाइल शेयर बिलकुल उस स्त्री कि तरह होता हैं, जिसे समझ पाना किसी के वश मे नहीं होता- बल्कि इसमे डूब कर ही उससे पार पाया जा सकता हैं... और वोलटाइल शेयर को हीं जिंदा शेयर मान कर ट्रेड किया जाता हैं। इस उपन्यास का शीर्षक ‘Rx ज़िन्दगी’ में ‘Rx’ मेडिकल प्रिस्क्रिप्शन पर लिखा हुआ दिखता हैं। जिसका अर्थ ‘लेने’ का सुझाव होता हैं, यानि डॉक्टर रोग के लिए सुझाये हुये दवा को लेने का सुझाव देता हैं। मैं भी ज़िन्दगी को गले लगाने का सुझाव दूंगा। जिन्दगी से मांगने का नहीं, ज़िन्दगी को देने का सुझाव दूंगा। घूमने का सुझाव दूंगा, अलग-अलग जगहों से उगते और डूबते सूर्य को देखने का सुझाव दूंगा। सुनसान जुंगलों मे चिड़ियों की चहचहाहट सुननें और पेड़ों से बात करने का सुझाव दूंगा। बंजर रेगिस्तान का तिलिस्म देखने का सुझाव दूंगा। ऊंचे पहाडों पर खड़े हो, ज़ोर से चिल्ला कर अहंकार को फेंक देने का सुझाव दूंगा। नदी के किनारे बैठ कर उसके प्रवाहों को देखने का सुझाव दूंगा। जीवन मे ऐसे किसी एक को शामिल करने का सुझाव दूंगा, जिसके कंधे पर सिर रख कर रोया जा सके। एक बार बर्फीली हवाओं को चेहरे पर झेलने की सलाह दूंगा। स्त्रियों की इज्जत करने का सलाह दूंगा और बुजुर्गो के पास बैठ कर उन्हे सुननें की सलाह दूंगा। ये कुछ बातें हैं जिसे दुनिया से कहना चाहता था। एक तरीके का बाँध था जिसका पानी जानें कब से जमा हो निकलने की फिराक मे था। और इन विचारों ने कहानी का रूप ले लिया। अविनाश पाण्डेय यह किताब उनके लिए जो हार नहीं मानते जो निरंतर चलते रहते हैं जो मनोविज्ञान में दिलचस्पी रखते हैं जो शरीर-मन-आत्मा को गहराई से जानना चाहते हैं जो अपनी औकात की बेड़ियाँ तोड़ने में यकीन रखते हैं जो अपनी शर्तो पर जीते हैं जिन्हे प्यार करना आता हैं उनके लिए भी जो प्यार में लेने से ज्यादा देने मे यकीन रखते हैं और जिनके लिए, मेरी तरह प्यार को भूल पाना कठिन हैं “तत्वमसि” श्री कृष्ण को- जिन्होंने जीवन जीना सिखाया सूरज भगवान को- जिन्होंने आलोचनाओं से नहीं घबड़ाना और डटे रहना सिखाया ओशो को- जिन्होंने दृष्टि पर जमी धूल साफ की मेरे परिवार को- जिसने मुझ नालायक को झेला
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