Samar jo Shesh Abhi he

·
· INDIA NETBOOKS
4,1
8 vélemény
E-könyv
67
Oldalak száma
Az értékelések és vélemények nincsenek ellenőrizve További információ

Információk az e-könyvről

समर शेष के अनिवार्य औजारों का दस्तावेज

 

ऐसे वातावरण में, जब छंद कई आँखों की किरकिरी बनता जा रहा है, जब छंद को बँधाबँधाया, संकुचित करार देकर इसे अभिव्यक्ति के लिए अपर्याप्त बताया जा रहा है, कुछ लोग छंद के अनुशासन को निभाते हुए असीमित और अपरिमित भावों का सफल संप्रेषण कर रहे हैं। सच तो यह है कि विधाओं में कभी झगड़े नहीं होते, विधाओं के अवैतनिक और स्वयंभू अधिवक्ताओं की नोक-झोंक अवश्य संभव है। गीतों, मुक्तकों, कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से सम्मान और प्रतिष्ठा को अलंकृत कर चुकी गीता पंडित जी की यह दोहा सतसई आपके हाथों में है।

भौतिक रूप में इस दोहा सतसई संग्रह को पुस्तक ही कहेंगे लेकिन यह वस्तुतः गीता जी की संवेदना का संसार है। यह 13 और 11 मात्राओं में दो-दो पंक्तियों की तरतीब भर नहीं है। यह संवेदना के उस संसार का दस्तावेज है, जिसमें जीवन से जुड़ा हर पक्ष है।

ये वास्तव में उन तीरों का संग्रह है, जो देखने में भले ही छोटे लगें, घाव गंभीर करते हैं। लेकिन इन्हें केवल तीर कह देना एकांगी होना है। इन दोहों का विधागत शिल्प बेशक एक ही है, किंतु ये विषय और भाव के अनुसार कहीं तीर हैं, कहीं फूल हैं, कहीं एक बूँद आँसू हैं, कहीं मजदूर के तपते पैरों के लिए फाहा हैं, कहीं उथली राजनीति करने वालों के लिए चेतावनी से भरा प्रहार हैं, कहीं ये सामाजिकता से गायब होती जा रही सामाजिकता की नब्ज को टटोलने वाले कोमल हाथ हैं।

गीता जी को गीत का संस्कार अपने पूज्य पिता जी से मिला है। जाहिर है, छंद का ककहरा वहीं से पाया है। लेकिन इस सबके साथ एक बात और यह हुई कि गीता जी जो लिखती हैं वही जीती हैं। उनके यहाँ कहने और करने में भेद मुझे तो नहीं दिखा। इन दोहों की ईमानदारी, विषय का बाहुल्य, लयात्मकता और गति के पीछे दमकती हुई गीता हैं।

प्रेम की बात करते हुए उसके कितने रूप एक ही दोहे में प्रतिबिंबित किए जा सकते हैं, यह सहज ही देखा जा सकता हैः

    प्रेम नेह करुणा दया, सब मानुष की जात

    फिर ऐसा आतंक क्यूँ, समझ न आयी बात

प्रेम जैसे कोमल विषय के साथ जब आतंक जैसा शब्द भी आता है तो पता चलता है कि गीता जी के यहाँ प्रेम की परिभाषा कितनी विस्तीर्ण है। दोहों के इतिहास में यह प्रेम पर पहला दोहा नहीं है लेकिन ढाई आखर से बहुत आगे निकल कर यह उस आतंक की बात कर रहा है जो प्रेम के बरक्स खड़ा है।

यही समकालीनता गीता जी को फेहरिस्त में एक मुकाम देती है। क्योंकि समर अभी शेष है, इसलिए जीवन के हर पक्ष के साथ प्रश्न जुड़े हैं। समर बेशक शेष है, इसीलिए गीता जी के दोहे तटस्थता का संतुलन नहीं साधते, जो है उसे रेखांकित करते हुए ये प्रश्न करते दोहे हैं, यह उत्तर देते दोहे हैं। उनके यहाँ प्रेम कैसा है, और स्पष्ट होकर एक दोहे में देखा जा सकता हैः

    प्रेम धर्म सबसे बड़ा, प्रेम करे सुख होय

    जात-पात अलगाव हैं, केवल पीड़ा बोय

और समकालीनता के साथ संप्रेषणीयता को निभाते हुए वह दोहे की जमीन में तोड़-फोड़ करने का साहस भी रखती हैं। देखिए यह दोहाः

    सोशल डिस्टेंसिंग हुई, सभी घरों में बंद

    मगर धरा तो झूमती, ओढ़े अपनी गंध

गीता जी चाहतीं तो ऐसे भी कर सकती थी किः

    सामाजिक दूरी हुई, सभी घरों में बंद

लेकिन अव्वल तो सोशल डिस्टेंसिंग का उचित अनुवाद सामाजिक दूरी है ही नहीं, भारतीय संदर्भों में इसका अर्थ शारीरिक दूरी है। दूसरा यह कि सोशल डिस्टेंसिंग से बात बड़े वर्ग तक पहुँचेगी।

एक जिम्मेदार लेखक अपने समय से टकराने का साहस रखता ही है। कोरोना काल में सड़कों का मंजर और कामगारों की स्थिति को याद कीजिए, यह दोहा वही कह रहा हैः

    बिलख रहे हैं भूख से, काम नहीं है पास

    मीलों पैदल चल रहे, अपनों की है प्यास

कृषकों के लिए उनके अहसास देखिएः

    धूप नहीं जानी कभी, ना ठंडी बरसात

    दिनभर खटता खेत में, फिर भी भूखा गात

वास्तव में किसान की समस्याएँ कई आयाम लिए हुए हैं। बेसहारा या जंगली पशुओं ने भी किसानों की आर्थिक रीढ़ पर हमला किया है। यह दोहा उसी संदर्भ में हैः

    फसलें सारी चर गयी, नील गाय हर छोर

    खाली खेती देखकर, रोया वह घनघोर

एक दोहे में पात्र को खड़ा करना, उसका दृश्य दिखा कर उसकी बात कहना सफलता हैः

    बाढ़ निगोड़ी ले गयी, फसलें सारी संग

    सुगना की शादी हुई, पलभर में लो भंग

मन जैसी चंचल शय को कैसे बाँधा गया है, अवश्य देखिएः

    मन की हाँडी में नहीं, ख़ुशियों का अब खेल

    भूखे मन व्याकुल हुए, खुद से भी कब मेल

सामुदायिकता की भावना की गुमशुदगी अब सामान्य भावना है। लेकिन संतोष यह है कि गीता जी के दोहों में उनके लिए जगह सुरक्षित है और है भी चैपाल के संदर्भ मेंः

    आँख निगोड़ी ताकती, वो पनघट चैपाल

    पीड़ा भी हँसकर जहाँ, बन जाती थी ढाल

और अगर तीर देखने हैं तो यह दोहा भी लेते जाइएः

    भाषण देते मंच से, कहते हैं सब ठीक

    भूखा बच्चा पूछता, बोलो क्या है नीक

    नारों में चिंता बहुत, देश रहे खुशहाल

    भूख गरीबी देख तो, बता रही है हाल

इन दिनों जब, समर्थन और विरोध के पीछे तर्क से अधिक अतार्किकता प्रबल है, घटनाओं के विश्लेषण के बाद अगर गीता जी यह कहती हैं तो यह सच का बयान हैः

    हिपनोटाइज कर रहे, जनता को दिन रात

    बाबा बने बहेलिये, भूले हर जज़्बात

ये दोहे, अपने साथ बहा ले जाते हैं, कहीं ऐसे कहकहे देते हैं जिन्हें निचोड़ कर आँसू निकलता है और कहीं ऐसे आँसुओं को जगाते हैं जिन्हें मिला दें तो फिर कहकहा बन जाता है। गीता पंडित जी को इस बेहद संग्रहणीय पुस्तक के लिए अग्रिम बधाई।

पाठक इस पुस्तक का भरपूर आनंद लेंगे, सोचेंगे, ठिठकेंगे, ऐसा विश्वास है।

- नवनीत शर्मा

ग़ज़लकार, पत्रकार

राज्य संपादक (हिमाचल प्रदेश)

दैनिक जागरण

Értékelések és vélemények

4,1
8 vélemény

E-könyv értékelése

Mondd el a véleményedet.

Olvasási információk

Okostelefonok és táblagépek
Telepítsd a Google Play Könyvek alkalmazást Android- vagy iPad/iPhone eszközre. Az alkalmazás automatikusan szinkronizálódik a fiókoddal, így bárhol olvashatsz online és offline állapotban is.
Laptopok és számítógépek
A Google Playen vásárolt hangoskönyveidet a számítógép böngészőjében is meghallgathatod.
E-olvasók és más eszközök
E-tinta alapú eszközökön (például Kobo e-könyv-olvasón) való olvasáshoz le kell tölteni egy fájlt, és átvinni azt a készülékre. A Súgó részletes utasításait követve lehet átvinni a fájlokat a támogatott e-könyv-olvasókra.