Satta Ka Mokshdwar : Mahabharat

· Vani Prakashan
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मुकेश भारद्वाज ने पत्रकारिता की शुरुआत नब्बे के दशक के उस दौर में की जब राष्ट्र राज्य का एक बड़ा बाज़ार बन रहा था और नागरिक की पहचान उपभोक्ता के रूप में हो रही थी। पत्रकार के रूप में उन्हें जानने-समझने का मौक़ा मिला कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग हाशिये पर जीवन गुज़ारने वालों को कैसे देखते हैं और हाशिये पर रहने वालों को सत्ता से क्या उम्मीद है। वे बड़ी बेबाकी से दोनों मुद्दों पर अपनी राय ज़ाहिर करते रहे हैं। उनकी पुस्तक ‘सत्ता का मोक्षद्वार: महाभारत’ कोरोना काल के दौरान घटी घटनाओं और दुर्घटनाओं को सामने लाते हुए आज के समय में महाभारत के चरित्रों की प्रासंगिकता को दर्शाती है। शासन और जनतन्त्र एक सिक्के के दो पहलू हैं। जनतन्त्र के तीन पक्ष हैं-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जो एक-दूसरे को सन्तुलित करते हैं; वहीं इन तीनों पर पैनी नज़र रख ख़बरों को जनता तक पहुँचाने वाली पत्रकारिता लोकतान्त्रिक समाज और संविधान का मज़बूत स्तम्भ है। कोरोना काल के दौरान पौराणिक धारावाहिकों का प्रसारण कर जनता को धर्म और नीति से जोड़ने का प्रयास किया गया। महाभारत काल हो या आज का समय राजनीति में धर्म की भूमिका सोचने को बाध्य करती है। जनतन्त्र में ख़बरें समाज का वह आईना हैं जिसमें सरकार, विपक्ष और जन सामान्य की छवियाँ स्पष्ट दिखाई देती हैं।

प्रस्तुत पुस्तक में महाभारतकालीन चरित्रों को आज के युग में घट रही घटनाओं के सन्दर्भ में रख धर्म और न्याय के सम्बन्ध में उनके तर्कों को परखा गया है। महाभारत का वही किरदार दमदार है जो अपने कर्मों के लिए बुलन्द तर्क गढ़ता है। सन्तुलन का खेल खेलने वाले किरदार को इतिहास ने ठहरा हुआ खिलाड़ी घोषित किया है। महाभारत में युधिष्ठिर अपनी इसी स्थिरता और समन्वयता के कारण धुँधले पड़ जाते हैं। वहीं श्रीकृष्ण का चरित्र ऐसे मनोविज्ञान को दर्शाता है जो सत्ता में विदुर जैसे बौद्धिकों की ज़रूरत समझते हैं जो कौरवों के अधर्म और पाण्डवों के धर्म दोनों के साथ सामंजस्य बिठा लेता है। आज के समय में ‘ओपिनियन मेकर’ के नाम से पुकारा जाने वाला यह बौद्धिक वर्ग बख़ूबी जानता है कि उसका काम केवल नीतियाँ बनाना है, उन्हें लागू करना नहीं। सत्ता में बदलाव के साथ उनका विरोध नम्र अनुरोध में तब्दील हो जाता है। महाभारतकालीन विदुर नीति सत्ता में बौद्धिक वर्ग के शुरुआती अवसरवाद का ही रूप है।

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ስለደራሲው

इंडियन एक्सप्रेस समूह में पत्रकारिता की शुरुआत कर हिन्दी दैनिक ‘जनसत्ता’ के कार्यकारी सम्पादक तक का सफ़र। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ व ‘जनसत्ता’ में अंग्रेज़ी और हिन्दी दोनों भाषा में काम किया। लेकिन जनसत्ता की कमान सँभालने के बाद महसूस हुआ कि जब हम जन की भाषा में पत्रकारिता करते हैं तो उस समाज और संस्कृति का हिस्सा होते हैं जिससे हमारा नाभिनाल सम्बन्ध है। पिछले कुछ समय से समाज और राजनीति के नये ककहरे से जूझने की जद्दोजहद जारी है। संचार के नये साधनों ने पुरानी दुनिया का ढाँचा ही बदल दिया है। स्थानीय और स्थायी जैसा कुछ भी नहीं रहा। एक तरफ़ राज्य का संस्थागत ढाँचा बाज़ार के खम्भों पर नया-नया की चीख़ मचाये हुए है तो चेतना के स्तर पर नया मनुष्य पुराना होने की ज़िद पाले बैठा है। राजनीति वह शय है जो भूगोल, संस्कृति के साथ आबोहवा बदल रही है। लेकिन हर कोई एक-दूसरे से कह रहा कि राजनीति मत करो। जब एक विषाणु ने पूरी दुनिया पर हमला किया तो लगा इन्सान बदल जायेगा। लेकिन इन्सान तो वही रहा और पूरी दुनिया की राजनीति लोकतन्त्र से तानाशाही में बदलने लगी। राजनीति के इसी सामाजिक, भौगोलिक, आर्थिक और सांस्कृतिक यथार्थ को जनसत्ता में अपने स्तम्भ ‘बेबाक बोल’ के जरिये समझने की कोशिश की जिसने हिन्दी पट्टी में एक ख़ास पहचान बनायी। ‘बेबाक बोल’ के सभी लेख एक समय बाद किताब के रूप में पाठकों के हाथ में होते हैं। देश में कोरोना आपदा के बाद सरकार की पहली रणनीति थी पूर्णबन्दी के कारण घर में बैठे लोगों को रामायण और महाभारत जैसे धार्मिक धारावाहिकों से जोड़ना। कोरोना से जूझ रहे लोग टीवी पर महाभारत के किरदारों को अपनी जटिलता से जूझते देख अपने अभाव को उस भाव के सामने रख देते थे जो कृष्ण गीता के उपदेश से दे रहे थे। एक सांस्कृतिक पत्रकार के रूप में महाभारत के किरदार को कोरोना और आधुनिक राजनीति के सन्दर्भ में देखने की क़वायद का हिस्सा है यह किताब।

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