Sur Banjaran

· Vani Prakashan
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336
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 सुर बंजारन हिन्दी के देशज और लोक-मानस की अनुकृतियों को उकेरने वाले कथाकार भगवानदास मोरवाल की छठी औपन्यासिक कृति है। यह उपन्यास लगभग मरणासन्न और विलुप्त होती लोक-कला का दस्तावेज़ भर नहीं है, बल्कि एक अलक्षित और गुम होती विरासत का सांस्कृतिक इतिहास भी है। इसे हिन्दी का पहला ऐसा उपन्यास कहा जा सकता है जिसके आख्यान के केन्द्र में हाथरस शैली की नौटंकी, उसकी पूरी परम्परा और सुरों की समाप्त प्रायः दुनिया है। एक ऐसी दुनिया जिसने अपना वृत्त, लोक में प्रचलित श्रुतियों, ऐतिहासिक-सामाजिक घटना-परिघटनाओं पर आधारित लोक-धुनों व सुरों से निर्मित किया है।


भारतीय इतिहास के सबसे अभागे राजकुमारों में से एक शाहज़ादे दारा शिकोह के बसाये एक छोटे-से शहर की, एक छोटी-सी गली से निकला यह कमसिन सुर जहाँ हिन्दुस्तान थिएटर में तप कर नौटंकी की दुनिया में अपनी गायन-क्षमता प्रमाणित करता है, वहीं अपनी उम्र के आख़िरी पड़ाव में आकर अभिव्यक्ति के सन्तोष में डूब, विडम्बनाओं के बीच यह अपने आप को नितान्त अकेला छोड़ देता है।

पारम्परिक और आधुनिक गीत-संगीत व उनके साज़ों से छिड़े सुरों की लोक-परम्परा का अद्भुत मिश्रण है यह उपन्यास। इसकी नायिका रागिनी केवल एक पात्र नहीं है बल्कि ऐसे असंख्य अलक्षित सुरों का प्रतिनिधि-चरित्र है, जो आज गुमनामी के अँधेरे में खोए अपने-अपने सुरों के मीड़, गमक, खटका को तलाश रहे हैं। चौबोला, दौड़, दोहा, बहरतबील, दादरा, ठुमरी, छन्द, लावनी, बहरशिकस्त, सोहनी जैसे छन्द जब-जब ढोलक की थाप और झील-नक्काड़े की धमक पर गले को चीरते हुए रात के सन्नाटे में गूँजते हैं, तब लगता है मानो नटराज के दरबार में रागों की बारिश हो रही है। इसलिए इसे हाथरस शैली की नौटंकी की एक अदाकारा का जीवन-वृत्त कहना भी बेमानी होगा, बल्कि यह लोक से संचित विरासत की एक प्रबल अदम्यता और जिजीविषा का लोमहर्षक आख्यान के रूप में हमारे सामने आता है।


यह उपन्यास नौटंकी के रूप में स्थापित हो चुकी उस विडम्बना का भी करुणामयी पाठ प्रस्तुत करता है, जिसने हमारे समाज में एक हिकारत और उपहास भरा मुहावरा गढ़ लिया है। एक ऐसा मुहावरा जिसने मान्य छन्दों की खनक को बदरंग कर दिया है। अपनी प्रखर संवेदना, पहले उपन्यासों की तरह रंगीन क़िस्सागोई और अपनी बेधक भाषा के लिए सर्वमान्य कथाकार भगवानदास मोरवाल की यह कृति एक अनूठी उपलब्धि है। अनूठी इसलिए कि नौटंकी अर्थात सांगीत को केन्द्र में रखकर आख्यान रचना एक चुनौती भरा काम है। मगर इस चुनौती और जोखिम की परवाह किये बिना लेखक इस आख्यान को अपनी परिणति तक पहुँचाने में बखूबी कामयाब रहा है।


एक अलक्षित और उपेक्षित लोक-कला में समाहित जीवन की ओर लौटते हुए, इसके बहुविध रूपों और भाव-प्रवाह को लेखक ने, न केवल समृद्ध किया है अपितु इससे पाठक व हमारा साहित्य दोनों समृद्ध होंगे-ऐसा विश्वास है।


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