कुरुक्षेत्र के रण से अलग अपनी एक नयी पहचान बुन रहे थे...
फिर मैंने उनकी गैया नहीं देखी... मैया भी नहीं देखी... सिर्फ
परकटे मोर-मोरनी और कभी की रंग-बिरंगी चिडि़यां देखी। ...फिर सारे मोरपंख मैंने स्याही में डाले और हजार पन्नों का सफर सिर्फ
कृष्ण-कृष्ण लिखकर निकाल डाले। हरेक सौवां पन्ना मील का एक पत्थर था जिसे कृष्ण का अभय और वर था...और खुद ये उनके लिए
आश्वासन था कि उनकी पहचान लिखने का साधन आखिरी हर नये युग के नये कृष्ण का आह्वाहन था।ँ।