बालाराम : (काँपकर और घिग्घी बँधे हुए गले से) चाबियाँ! चाबियाँ मेरे पास नहीं हैं ।
सरदार : (भयानक स्वर मे) तब खोपड़ा खोला जाता है, तैयार हो जा ।
बालाराम : (भयभीत टूटे और बैठे स्वर मे) चंपी, बेटी चंपी, चाबियाँ दे दे । (चंपा अचकचाकर चादर हटाती है और आँखें मलती हुई बैठ जाती है। अपने पिता की ओर देखती है और घबराई हुई दृष्टि से एक बार सरदार की आकृति की ओर फिर मेघराज को देखती है मेघराज पर उसकी दृष्टि एक क्षण के लिए ठहरती है? उसकी कलार्ड़ पर राखी बँधी हुई है चंपा के दृष्टिपात करते ही मेघराज हिल जाता है)
मेघराज : ओफ! बहिन ओह!!
सरदार : (कड़ककर) क्या?
मेघराज : कुछ नहीं! चलिए यहाँ से । आप गलत घर में आए हैं । चलिए शीघ्र छोड़िए इस जगह को ।
चंपा : (केंद्रित ध्यान से उसके कंठ स्वर को पहचानकर: हाथ जोड़ती हुई) भैया! भैया-राखी की लाज! अपनी बहिन को बचाओ । भैया, तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ ।
सरदार : (मेघराज से) तुम बाहर जाओ । (अपने साथी से) क्या देखते हो? बाँध लो, पकड़ो इस बेईमान को!
मेघराज : (दृढ़ और ऊँचे स्वर में) चलो, हटो यहाँ से । हटो, नहीं तो तुम्हारी छाती फूटती है ।
-इसी पुस्तक से