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अधिकतम संसार आँखों से व कानों से प्रविष्ट होता है | जितना संसार का दर्शन, श्रवण कम होगा उतना ही संसार का आकर्षण कम होता जाएगा और जितना अधिक भगवान का चिंतन, स्मरण होगा उतना भगवान हमारे भीतर प्रविष्ट होते जाएँगे | संसार में रहें लेकिन संसार के रूप में जो इश्वर है, उसी इश्वर की सर्वत्र-सर्वदा और सर्वथा कृपा का दर्शन करें | यदि हर परिस्थिति ईश्वर द्वारा भेजी हुई लगने लगे तो फिर संसार संसार नहीं रह जाता, वह फिर प्रभु का विलास हो जाता है | फिर उसे हर परिस्थिति में शांति, आनंद और माधुर्य मिलने लगता है और वह स्वयं मुक्त स्वरुप हो जाता है |

जो आत्मा में ही रत सदा, आत्मा में संतृप्त है |

आत्मा में ही मग्न है, आत्मा से संतुष्ट है |

आस्था सभी की त्यागकर निर्वासना सो धीर है,

जीता हुआ सो मुक्त है, सशरीर भी अशरीर है |

लेखक के बारे में

 इस पुस्तक के लेखक 'narayan sai ' एक सामाजिक एवं आध्यात्मिक स्तर के लेखक है | उसीके साथ वे एक आध्यात्मिक गुरु भी है |  उनके द्वारा समाज उपयोगी अनेको किताबें लिखी गयी है | वे लेखन के साथ साथ मानव सेवा में सदैव संलग्न रहते है | समाज का मंगल कैसे हो इसी दृढ़ भावना के साथ वे लेखन करते है |

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