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स्वामी-भक्ति का पाठ पढ़ाकर पुरुष ने नारी को अपने हाथ का खिलौना बना लिया। विराज भी ऐसे ही वातावरण में पली थी। उसने अपने पति को ही सर्वस्व मान लिया था। उसने स्वयं दुःख बरदाश्त किया; परंतु पति को सुखी रखने की हर तरह से चेष्टा की। लेकिन इस सबके बदले में उसे क्या मिला? लांछना और मार। तीस दिन की भूखी-प्यासी; बुखार से चूर विराज; अपने पति नीलांबर के लिए बरसात की अँधेरी रात में भीगती हुई; चावल की भीख माँगने गई। ...और नीलांबर ने उसके सतीत्व पर संदेह किया; उसे लांछना दी।... विराज का स्वाभिमान जाग उठा। पति की गोद में सिर रखकर मरने की साध करनेवाली विराज; अपने सर्वस्व को छोड़कर चल दी...और जब उसे अपना अंत समय दिखाई दिया; तो फिर वह पति के समीप पहुँचने को तड़प उठी। उस सती-साध्वी को पति का सामीप्य मिला अवश्य; लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी; पति-सुख कुछ समय को पुनः प्राप्तकर बारंबार पद-धूलि माथे से लगाकर विराज अपने सारे दुःखों को भूल गई। अंतिम क्षण अपने पति से कहती गई; ‘मेरी देह शुद्ध है; निष्पाप है! अब मैं चलती हूँ; जाकर तुम्हारी राह देखती रहूँगी!’
Fiction & literature
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