महिलाओं की रक्षा का मुददा भी राजनैतिक और समाजिक विसंगतियों की वेदी पर सूली चढ़ता रहा। हमारे सास्कृतिक विरासत के मूल्य चुटहिल होते रहे पर हम केवल और केवल नारेबाजी तक ही अपने को सीमित बनाये रखते हैं। लेखन के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी का अपना महत्व है परन्तु शायद वह भी बाजारवाद की चपेट में आने से अंशतः ही बच पाया। हम कब तक ‘स्त्री’ को केवल ‘भोग्या’ जैसी रुग्ण मानसिकता में बाँधे रहना चाहते हैं। इतिहास साक्षी है कि महिला के अपमान से महाभारत प्रकट होता है। तभी यह भी उल्लेख आवश्यक हो जाता है कि महिमा एवम् ममत्व की निर्झरणी की अपनी कुछ मर्यादायें भी हैं। चाहे वाणी की मर्यादा हो अथवा वेश की, चाहे आचरण की मर्यादा हो अथवा समाजिक परिवेश की, इन्हें तोड़ा जाता है तो कुछ अकल्पित ही घटित होता है। धन की लिप्सा ने इस आग में घी का काम करते हुये इसे भंयकर बना दिया है। शब्दों के ध्वाजारोहण हमारे समाज में बढ़ रहे हैं। आचरण की महत्ता को लगातार घटाने के षड़यन्त्र हो रहे हैं। अब समय आ गया है कि हम अपने आचरण को महत्व दें। महिमा, मर्यादा के तटबन्धांे को सुदृढ़ करें और ममत्व के सागर को मधुरता से भरने में अपना सम्पूर्ण योगदान समर्पित करें जिससे हमारे समाज में महिलाओं को पुनः वही स्थान प्राप्त हो सके। जिसकी सारा विश्व प्रशंसा करता रहा है। हम तो शक्ति के उपासक हैं युगों-युगांे से इस शक्ति उपासना से हमारी सामथ्र्य प्रकट होती है तो फिर से एक बार अपनी विश्व विजय सामथ्र्य को प्रकट करने के लिये शक्ति आराधना की ओर अग्रसर हों।